I believe in the imagination. What I cannot see is infinitely more important than what I can see.

Sunday, January 25, 2009

विमर्श..


अव्यक्त अनकही बातें
ना लिख सकती हूँ
ना कह सकती हूँ
तप्त आंसू , तप्त श्वास
फिर भी है इनका प्रवास
दबी छिपी आशाएं
अनगिनत अभिलाषाएं
निर्ममता से उन्हें कुचलने का
स्वयं का स्वयं से हो रहा संघर्ष
आँखों से आते है आंसू
फिर भी हो रहा है हर्ष
आशाओं अभिलाषाओं का दमन कर
निर्माणशील है आदर्श
परन्तु क्या पायेगा तू ऐ मन इससे
तुझमे और मुझमे हो रहा विमर्श॥

(साहित्यिका)

3 comments:

Anonymous said...

bahut shandar poem hai

दर्पण साह said...

SINCE MY SYSTEM IS VERY SLOW SO CAN'T AFFORD USING GOOGLE TRANSLIT....//
PARDON ME....
....
HOWEVER COMING TO UR POEM .....


".....स्वयं का स्वयं से हो रहा संघर्ष
आँखों से आते है आंसू
फिर भी हो रहा है हर्ष..."

YE VIRODHBASH.....
...VAKAYI ADBHOOT..
AISE HI LIKHEIN ,APNE LIYE HI LIKHEIN.....

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

are waah.........kyaa baat hai....!!

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