लिखूं कुछ
पर लिखूं क्या??
और लिखूं भी किसके बारे में..
भटका है मन इन्ही विचारों के ओसारे में
अन्दर कैसे दाखिल होऊं
जब द्वार का ही पता नहीं
करू मैं वर्णन किसका
जब आधार का ही पता नहीं॥
जब मिला द्वार तो मिले अनेको
कौन सही ये पता नहीं
सहस करके चुना एक द्वार
पर संसार ने कहा ये सही नहीं
नहीं नहीं और नहीं नहीं
हर जगह यही है छाया
और इन्ही नकारात्म विचारों ने
हमे कमजोर है बनाया
क्या है सही क्या है गलत
बहुत कुछ सिखा अब तक
पर मिल न सका कोई आधार मुझे
जिस पर लिख सकूँ कविता शाश्वत...
2 comments:
aapke vichar bahut hi alag aur hatkar hain ..........bahut hi sundar abhivyakti hain.
bhut achhi lines hai aap ki.aap aise he likhti rahe aur hame achha padne ko milta rahe.......sirf pade na un baato ke bhav samjh kar apni life ko ek nai disha de.
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